प्रकृति में सबकी अपनी गति है, निर्धारित गंतव्य की दिशा में उस गति से लगातार चलते रहने से पथिक अपने लक्ष्य पर पहुँच ही जाता है। आवश्यकता यह है कि यात्रा के क्रम में मार्ग से भावुकता या अज्ञानता के कारण हुए स्वाभाविक भटकाव को पुनः सम्यक् कर लिया जाये।
यात्रा के क्रम में अपेक्षाकृत अधिक गति वाले को मार्ग दे देना हार कदापि नहीं होती। हाँ! गति बढ़ाकर चुनौती देने से दुर्घटना का खतरा अवश्य बढ़ जाता है। अपनी स्वाभाविक गति से अधिक तेज चलने वाले स्वयं तो चोटिल होते ही हैं, दूसरों को भी चोटिल कर, मार्ग को क्षतिग्रस्त करते हैं। इसलिए खतरनाक गति से चलने वालों से बचते हुये, अपनी गति बनाये रखना महत्वपूर्ण है। कारण कि यहाँ किसी का किसी से कोई कंपटीशन नहीं है। सबको अपनी ही वर्तमान स्थिति से आगे की स्थिति की तुलना करनी है।
इसलिए नारायण स्वामी कहते हैं।
तेरे भावे कछू करौ, भलो बुरो संसार।
नारायण तू बैठी के, अपणो भवन बुहार।
परम पूज्य गुरुदेव श्रीराम शर्मा ‘आचार्य’ जी के शब्दों में कहें तो अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।
अत: स्वयं को देखना सर्वोत्तम है, व्यक्ति स्वयं ही स्वयं का मित्र और स्वयं ही स्वयं का शत्रु है।