गीता सार
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१. ☞︎︎︎ सदैव धर्म-अधर्म का चिंतन कर भगवान के आदेशानुसार जीवन जियूँगा।
२. ☞︎︎︎ भगवान के आदेशों के लिए गीता माता और अपनी अंतरात्मा की आवाज़ की शरण लूँगा।
३. ☞︎︎︎ बुद्धि को आत्मानुगामिनी बनाकर सतत् सबकी उन्नति के लिए कार्य करने के अलावा मेरी अपने लिए कोई कामना नहीं होगी।
४. ☞︎︎︎ अंतरात्मा का दिव्य प्रकाश अवरुद्ध करने वाले विकारों को घटाने का सतत् उपाय करूँगा।
५. ☞︎︎︎ अन्तःकरण की पवित्रता के संवर्धन हेतु आत्मसंयम और आत्मविस्तार का निरंतर अभ्यास करूँगा।
६. ☞︎︎︎ सहज स्थिति में बैठकर अपने चित्त की सम, निर्विचार अवस्था का साक्षी बनने का अभ्यास करूँगा।
७. ☞︎︎︎ जड़-चेतनमय सृष्टि को परमात्मा का स्वरूप और उनसे योग प्राप्ति का दिव्य साधन मानूँगा।
८. ☞︎︎︎ अन्तःकरण को मौन रख स्वासों की माला से परमात्मा के सत् नाम ॐ का सतत् जप कर चित्त को सूक्ष्म कुसंस्कारों से मुक्त और पवित्र बनाने का अथक प्रयास करूँगा।
९. ☞︎︎︎ परमात्मा ही मेरा योगक्षेम वहन करते हैं। अपने अन्तःकरण के पवित्र भावों द्वारा उनके सेवा-भजन में अनन्यभाव से लगा रहूँगा।
१०. ☞︎︎︎ मैं हरपल सृष्टिरूप-परमात्मा के सम्मुख उनके दैवीय संरक्षण में हूँ।
११. ☞︎︎︎ परमात्मा के दैवीय संरक्षण में मेरे भय का सर्वथा अंत हो गया है। निमित्त मात्र बनकर मैं भगवत् आदेशों का पालन कर रहा हूँ।
१२. ☞︎︎︎ साकार-निराकार हर रूप में परमात्मा की उपस्थिति का सतत् अनुभव करते हुए अपने पवित्र भावों से उनको प्रिय लगने वाले आचरण ही करूँगा।
१३. ☞︎︎︎ प्रकृति और विकृति शरीर रूपी ‘क्षेत्र’ हैं। इनके प्रकाशक ‘क्षेत्रज्ञ’ परमात्मा ही इनका एकमात्र सत्य और धर्म हैं।
१४. ☞︎︎︎ क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का विश्मरण होते ही मुझमें अज्ञान और अभाववृत्ति बढ़ जाते हैं। जिससे आसक्तिजन्य आसुरी संस्कार सिर उठाने लगते हैं।
१५. ☞︎︎︎ वैराग्य के अस्त्र से आसक्ति को भलीभाँति काटकर मैं पुरुषोत्तम के परमभाव से भावित और कृतकृत्य हो रहा हूँ।
१६. ☞︎︎︎ जीवन में स्वाध्याय, सत्संग और सेवा की व्यवस्था बनाये रखकर सदगुणों का विकास करने हेतु सदैव तत्पर रहूँगा।
१७. ☞︎︎︎ सत् स्वरूप परमात्मा के निमित्त यज्ञ, दान और तप करके अपनी चेतना को उर्धगामी बनाऊँगा।
१८. ☞︎︎︎ गीतामाता के समस्त आदेशों पर श्रद्धापूर्वक चलने को अपने जीवन की अचलनीति बनाऊँगा।
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Essence of BhagwadGeeta
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1☞︎︎︎ I will live according to the orders of God and will always evaluate right or wrongness of the direction of life at the moment.
2☞︎︎︎ For the orders of God I will seek refuge in the teachings of the Bhagavad Gita and the voice of Inner-Self.
3☞︎︎︎ I will bring my intellect under the guidance of Inner-Self and work tirelessly for the progress of all, without any desire for me.
4☞︎︎︎ I will continuously strive to reduce my impurities that hinder the divine light of the Inner-Self.
5☞︎︎︎ I will engage in constant practice of self-control and self-expansion for the purification of my inner-instruments.
6☞︎︎︎ Sitting in a natural state, I will practice becoming a witness to the equanimous and silent state of myself.
7☞︎︎︎ I will regard the world as the manifest form of the God and the divine means of attaining His bliss.
8☞︎︎︎ By keeping my inner-instructions silent and chanting the sacred name of the God ‘Om’ with the rosary of breaths I will make tireless efforts to burn my subtle impurities.
9☞︎︎︎ God supports my welfare in different forms. I will serve Him with purest feelings of my heart.
10☞︎︎︎ I am standing face to face with cosmic form of God. His divine protection is safe guarding me every moment.
11☞︎︎︎ All my fears have completely ended in the divine protection of the God. I am simply following His orders just as his instrument.
12☞︎︎︎ Experiencing His presence in manifest and unmanifest, all forms of world, I will only engage in actions with my pure heart that are dear to Him.
13☞︎︎︎ Nature and it’s distortions are called Body, the ‘Field’. God, the conscious ‘Knower of the Field’, is the only Truth and Dharma of the Field.
14☞︎︎︎ When I forget the form of the ‘Knower of the Field’, ignorance and tendencies of misery increase within me. Consequently, attachment-induced demonic traits start to rise.
15☞︎︎︎ By skillfully cutting off attachment completely with the weapon of renunciation, I am feeling bliss of the Supreme Nature of the God.
16☞︎︎︎ I will always remain diligent in developing virtues by establishing a system of self-study, association with the wise, and service of the God in life.
17☞︎︎︎ I perform acts of sacrifice, charity, and austerity with the sole motive of service of God for upliftment of level of my consciousness.
18☞︎︎︎ Adherence to the Orders of GitaMata is unwavering principle of my life. I will serve Her with pure heart.
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